Thursday, July 18, 2013

081-है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल
बुलबुल के कार-ओ-बार प हैं ख़न्द:हा-ए-गुल

आज़ादी-ए-नसीम मुबारक, कि हर तरफ़
टूटे पड़े हैं हल्क़:-ए-दाम-ए-हवा-ए-गुल

जो था, सो मौज-ए-रंग के धोके में मर गया
अय वाए, नाल:-ए-लब-ए-ख़ूनीं-नवा-ए-गुल

ख़ुश-हाल उस हरीफ़-ए-सियह-मस्त का, कि जो
रखता हो मिस्ल-ए-साय:-ए-गुल, सर ब पा-ए-गुल

ईजाद: करती है उसे तेरे लिये, बहार
मेरा रक़ीब है, नफ़स-ए-`इत्र-सा-ए-गुल

शर्मिंद: रखते हैं मुझे बाद-ए-बहार से
मीना-ए-बे-शराब-ओ-दिल-ए-बे-हवा-ए-गुल

सतवत से तेरे जल्व:-ए-हुस्न-ए-ग़यूर की
ख़ूँ है मिरी निगाह में रंग-ए-अदा-ए-गुल

तेरे ही जल्वे का है यह धोका, कि आज तक
बे-इख़्तियार दौड़े है गुल दर क़फ़ा-ए-गुल

ग़ालिब, मुझे है उस से हम-आग़ोशी आरज़ू
जिस का ख़याल है गुल-ए-जैब-ए-क़बा-ए-गुल

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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