Thursday, July 18, 2013

087-की वफ़ा हम से

की वफ़ा हम से, तो ग़ैर उसको जफ़ा कहते हैं
होती आई है, कि अच्छों को बुरा कहते हैं

आज हम अपनी परीशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं, पर देखिये, क्या कहते हैं

अगले वक़्तों के हैं यह लोग, इन्हें कुछ न कहो
जो मै-ओ-नग़म: को, अन्दोह रुबा कहते हैं

दिल में आ जाए है, होती है जो फ़ुर्सत ग़श से
और फिर कौन से नाले को रसा कहते हैं

है परे सरहद-ए-इदराक से, अपना मस्जूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबल:-नुमा कहते हैं

पा-ए-अफ़गार प, जब से तुझे रहम आया है
ख़ार-ए-रह को तिरे हम, मेहर गिया कहते हैं

इक शरर दिल में है, उस से कोई घबराएगा क्या
आग मतलूब है हम को, जो हवा कहते हैं

देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्वत, क्या रंग
उस की हर बात प हम, नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं

वहशत-ओ-शेफ़्त: अब मरसिय: कहवें, शायद
मर गया ग़ालिब-ए-आशुफ़्त:-नवा, कहते हैं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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