Thursday, July 18, 2013

088-आबरू क्या ख़ाक उस गुल की

आबरू क्या ख़ाक उस गुल की, कि गुलशन में नहीं
है गरीबाँ नंग-ए-पैराहन, जो दामन में नहीं

ज़ो`फ़ से, अय गिरिय:, कुछ बाक़ी मिरे तन में नहीं
रंग हो कर उड़ गया, जो ख़ूँ कि दामन में नहीं

हो गए-हैं जम`अ, अज्ज़ा-ए-निगाह-ए-आफ़ताब
ज़र्रे, उस के घर की दीवारों के रौज़न में नहीं

क्या कहूँ तारीकी-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म अँधेर है
पंब: नूर-ए-सुबह से कम, जिस के रौज़न में नहीं

रौनक़-ए-हस्ती है `इश्क़-ए-ख़ान:-वीराँ साज़ से
अंजुमन बे-शम`अ है, गर बर्क़ ख़िरमन में नहीं

ज़ख़्म सिलवाने से, मुझ पर चार: जूई का है ता`न
ग़ैर समझा है, कि लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न में नहीं

बसकि हैं हम इक बहार-ए-नाज़ के मारे हुए
जल्व:-ए-गुल के सिवा, गर्द अपने मदफ़्न में नहीं

क़तर: क़तर: इक हयूला है, नए नासूर का
ख़ूँ भी, ज़ौक़-ए-दर्द से, फ़ारिग़ मिरे तन में नहीं

ले गई साक़ी की नख़्वत, क़ुलज़ुम-आशामी मिरी
मौज-ए-मै की आज रग मीना की गर्दन में नहीं

हो फ़िशार-ए-ज़ो`फ़ में क्या नातवानी की नमूद
क़द के झुकने की भी गुंजाइश मिरे तन में नहीं

थी वतन में शान क्या ग़ालिब, कि हो ग़ुर्बत में क़दर
बे-तक़ल्लुफ़ हूँ वह मुश्त-ए-ख़स, कि गुलख़न में नहीं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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