`ओहदे से मदह-ए-नाज़ के, बाहर न आ सका
गर इक अदा हो, तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ
हल्क़े हैं चश्महा-ए-कुशाद: ब सू-ए-दिल
हर तार-ए-ज़ुल्फ़ को निगह-ए-सुर्म:-सा कहूँ
मैं और सद हज़ार नवा-ए-जिगर ख़राश
तू, और एक वह न शनीदन, कि क्या कहूँ
ज़ालिम, मिरे गुमाँ से मुझे मुन्फ़`इल न चाह
हय, हय, ख़ुदा न करद: तुझे बेवफ़ा कहूँ
-मिर्ज़ा ग़ालिब
गर इक अदा हो, तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ
हल्क़े हैं चश्महा-ए-कुशाद: ब सू-ए-दिल
हर तार-ए-ज़ुल्फ़ को निगह-ए-सुर्म:-सा कहूँ
मैं और सद हज़ार नवा-ए-जिगर ख़राश
तू, और एक वह न शनीदन, कि क्या कहूँ
ज़ालिम, मिरे गुमाँ से मुझे मुन्फ़`इल न चाह
हय, हय, ख़ुदा न करद: तुझे बेवफ़ा कहूँ
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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