Thursday, July 18, 2013

090-मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ, कि फिर आ भी न सकूँ

ज़ो`फ़ में, ता`न-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है, कि उठा भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को, सितमगर वर्न:
क्या क़सम है तिरे मिलने की, कि खा भी न सकूँ

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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