Thursday, July 18, 2013

091-हम से खुल जाओ

हम से खुल जाओ, ब वक़्त-ए-मै-परस्ती, एक दिन
वर्न: हम छेड़ेंगे, रख कर `उज़्र-ए-मस्ती एक दिन

ग़र्र:-ए-औज-ए-बिना-ए-`आलम-ए-इम्काँ न हो
इस बुलन्दी के नसीबों में है पस्ती, एक दिन

क़र्ज़ की पीते थे मै, लेकिन समझते थे, कि हाँ
रंग लायेगी हमारी फ़ाक़:-मस्ती, एक दिन

नग़म:हा-ए-ग़म को भी, अय दिल ग़नीमत जानिये
बेसदा हो जाएगा, यह साज़-ए-हस्ती, एक दिन

धौल- धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेव: नहीं
हम ही कर बैठे थे, ग़ालिब पेशदस्ती एक दिन

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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