Thursday, July 18, 2013

092-हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा

हम पर, जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
इक छेड़ है, वगरन: मुराद इम्तिहाँ नहीं

किस मुंह से शुक्र कीजिये, इस लुत्फ़-ए-ख़ास का
पुरसिश है और पा-ए-सुख़न दरमियाँ नहीं

हम को सितम `अज़ीज़, सितमगर को हम `अज़ीज़
ना-मेहरबाँ नहीं है, अगर मेहरबाँ नहीं

बोस: नहीं न दीजिये, दुश्नाम ही सही
आख़िर ज़बाँ तो रखते हो तुम, गर दहाँ नहीं

हरचन्द जाँ गुदाज़ी-ए-क़हर-ओ-`अताब है
हरचन्द पुश्त गर्मी-ए-ताब-ओ-तवाँ नहीं

जाँ मुतरिब-ए-तरान:-ए-हल-मिन-मज़ीद है
लब पर्द:-संज-ए-ज़मज़म:-ए-अलअमाँ नहीं

ख़ंजर से चीर सीन:, अगर दिल न हो दोनीम
दिल में छुरी चुभो, मिज़: गर ख़ूँचकाँ नहीं

है नंग-ए-सीन:, दिल अगर आतिश कद: न हो
है `आर-ए-दिल, नफ़स अगर आज़र फ़िशाँ नहीं

नुक़सां नहीं जुनूँ में, बला से हो घर ख़राब
सौ गज़ ज़मीं के बदले, बयाबाँ गिराँ नहीं

कहते हो, क्या लिखा है तिरी सरनविश्त में
गोया जबीं प सिजद:-ए-बुत का निशाँ नहीं

पाता हूँ उस से दाद कुछ अपने कलाम की
रूह उल-क़ुदुस अगरचे:, मिरा हम-ज़बाँ नहीं

जाँ है बहा-ए-बोस:, वले क्यों कहे, अभी
ग़ालिब को जानता है, कि वह नीमजाँ नहीं

जिस जा कि पा-ए-सैल-ए-बला दरमियाँ नहीं
दीवानगां को वाँ हवस-ए-ख़ान-माँ नहीं

गुल ग़ुनचगी में ग़र्क़:-ए-दरिया-ए-रंग है
अय आगही फ़रेब-ए-तमाशा कहाँ नहीं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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