Thursday, July 18, 2013

098-मिलती है ख़ू-ए-यार से नार

मिलती है ख़ू-ए-यार से नार, इल्तिहाब में
काफ़िर हूँ, गर न मिलती हो राहत `अज़ाब में

कब से हूँ, क्या बताऊँ, जहान-ए-ख़राब में
शबहा-ए-हिज्र को भी रख़ूँ गर हिसाब में

ता फिर न इंतज़ार में नींद आए`उम्र भर
आने का `अहद कर गए, आए-जो ख़्वाब में

क़ासिद के आते आते, ख़त इक और लिख रख़ूँ
मैं जानता हूँ, जो वह लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब, उन की बज़्म में, आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

जो मुन्किर-ए-वफ़ा हो, फ़रेब उस प क्या चले
क्यों बदगुमाँ हूँ दोस्त से, दुश्मन के बाब में

मैं मुज़तरिब हूँ वस्ल, में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से
डाला है तुम को वहम ने, किस पेच-ओ-ताब में

मैं और हज़्ज़-ए-वस्ल, ख़ुदा-साज़ बात है
जाँ नज़्र देनी भूल गया, इज़्तिराब में

है तेवरी चढ़ी हुई, अँदर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई, तर्फ़-ए-नक़ाब में

लाखों लगाव, एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, एक बिगड़ना `अताब में

वह नाल:, दिल में ख़स के बराबर जगह न पाए
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में

वह सिहर, मुद्द`आ तलबी में न काम आए
जिस सिहर से सफ़ीन: रवाँ हो सराब में

ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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