Thursday, July 18, 2013

100-हैराँ हूँ दिल को रोऊँ

हैराँ हूँ, दिल को रोऊँ, कि पीटूं जिगर को मैं
मक़दूर, हो तो साथ रख़ूँ नौह:गर को मैं

छोड़ा न रश्क ने, कि तिरे घर का नाम लूँ
हर यक से पूछता हूँ, कि जाऊँ किधर को मैं

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर, हज़ार बार
अय काश, जानता न तिरी रहगुज़र को मैं

है क्या, जो कस के बाँधिये, मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ, तुमहारी कमर को मैं

लो, वह भी कहते हैं कि यह बे नंग-ओ-नाम है
यह जानता अगर, तो लुटाता न घर को मैं

चलता हूँ थोड़ी दूर, हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी, राहबर को मैं

ख़्वाहिश को, अहमक़ों ने, परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगर को मैं

फिर बेख़ुदी में भूल गया, राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगरन: एक दिन अपनी ख़बर को मैं

अपने प कर रहा हूँ क़ियास, अहल-ए-दह्‌र का
समझा हूँ दिल-पज़ीर, मता`-ए-हुनर को मैं

ग़ालिब ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़
देख़ूँ `अली बहादुर-ए-`आली-गुहर को मैं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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