Thursday, July 18, 2013

111-दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी प, कि पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यों गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
इंसान हूँ, पियाल:-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं

यारब, ज़मान: मुझ को मिटाता है किसलिये
लौह-ए-जहाँ प हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं

हद चाहिये सज़ा में, `उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं

किस वास्ते `अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
ला`ल-ओ-ज़मर्रुद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं

रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यों दिरेग़
रुतबे में मेहर-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं

करते हो मुझ को मन`-ए-क़दम-बोस किसलिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब, वज़ीफ़:-ख़्वार हो, दो शाह को दु`आ
वह दिन गए जो कहते थे, नौकर नहीं हूँ मैं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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