Thursday, July 18, 2013

112-सब कहाँ कुछ लाल:-ओ-गुल

सब कहाँ, कुछ लाल:-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, कि पिन्हाँ हो गईं

याद थीं, हम को भी, रंगारंग बज़्म-आराइयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं

थीं बनात उल-न`श-ए-गर्दूं, दिन को परदे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई, कि `उरयाँ हो गईं

क़ैद में या`क़ूब ने ली, गो, न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ हो गईं

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलैख़ा ख़ुश, कि महव-ए-माह-ए-कन`आँ हो गईं

जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो, कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं यह समझूंगा, कि शम`एं दो फ़ुरोज़ाँ हो गईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तिक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से, यही हूरें अगर वाँ हो गईं

नींद उस की है, दिमाग़ उस का है, रातें उस की हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें, जिस के बाज़ू पर, परीशाँ हो गईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुलबुलें सुन कर मिरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं

वह निगाहें क्यों हुई जाती हैं, यारब, दिल के पार
जो मिरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिश़गाँ हो गईं

बसकि रोका मैंने, और सीने में उभरीं पै ब पै
मेरी आहें बख़िय:-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं

वाँ गया भी मैं, तो उन की गालियों का क्या जवाब
याद थीं जितनी दु`आएं, सर्फ़-ए-दरबाँ हो गईं

जाँ-फ़िज़ा है बाद:, जिस के हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की, गोया रग-ए-जाँ हो गईं

हम मुवह्हिद हैं, हमारा केश है, तर्क-ए-रुसूम
मिल्लतें जब मिट गईं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं

रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां, तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, कि आसाँ हो गईं

यूं ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो अय अहल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीराँ हो गईं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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