Thursday, July 18, 2013

113-दीवानगी से दोश प ज़ुन्नार

दीवानगी से, दोश प ज़ुन्नार भी नहीं
या`नी हमारे जैब में इक तार भी नहीं

दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं

मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ, तो सहल है
दुश्वार तो यही है, कि दुश्वार भी नहीं

बे`इश्क़ `उम्र कट नहीं सकती है, और याँ
ताक़त ब क़द्र-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं

शोरीदगी के हाथ से, है सर वबाल-ए-दोश
सहरा में, अय ख़ुदा, कोई दीवार भी नहीं

गुंजाइश-ए-`अदावत-ए-अग़यार यक तरफ़
याँ दिल में, ज़ो`फ़ से, हवस-ए-यार भी नही

डर नाल:हा-ए-ज़ार से मेरे, ख़ुदा को मान
आख़िर नवा-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी नहीं

दिल में है यार की सफ़-ए-मिश़गाँ से रूकशी
हालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं

इस सादगी प कौन न मर जाए, अय ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

देखा असद को ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बारहा
दीवान: गर नहीं है, तो हुशयार भी नहीं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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