Thursday, July 18, 2013

115-मज़े जहान के अपनी नज़र में

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवा-ए-ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुए पर, हवा उड़ा ले जाए
वगरन: ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं

यह किस बिहिश्त शमाइल की आमद आमद है
कि ग़ैर-ए-जल्व:-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मिरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं

ख़याल-ए-जल्व:-ए-गुल से ख़राब हैं मैकश
शराब-ख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुआ हूँ `इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंद:
सिवाए-हसरत-ए-ता`मीर घर में ख़ाक नहीं

हमारे शे`र हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के, असद
खुला, कि फ़ायद: `अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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