Thursday, July 18, 2013

117-ग़ुन्च:-ए-नाशिगुफ़्त: को

ग़ुन्च:-ए-नाशिगुफ़्त: को दूर से मत दिखा, कि यूं
बोसे को पूछता हूँ मैं, मुंह से मुझे बता, कि यूं

पुरसिश-ए-तर्ज़-ए-दिलबरी, कीजिये क्या, कि बिन कहे
उस के हर एक इशारे से निकले है यह अदा, कि यूं

रात के वक़्त मै पिये, साथ रक़ीब को लिये
आए वह याँ ख़ुदा करे, पर न करे ख़ुदा, कि यूं

ग़ैर से रात क्या बनी, यह जो कहा, तो देखिये
सामने आन बैठना, और यह देखना कि यूं

बज़्म में उस के रूबरू, क्यों न ख़मोश बैठिये
उस की तो ख़ामुशी में भी, है यही मुद्द`आ कि यूं

मैं ने कहा कि, बज़्म-ए-नाज़ चाहिये ग़ैर से, तिही
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया, कि यूं

मुझसे कहा जो यार ने, जाते हैं होश किस तरह
देख के मेरी बेख़ुदी, चलने लगी हवा, कि यूं

कब मुझे कू-ए-यार में रहने की वज़`अ याद थी
आइन:-दार बन गई, हैरत-ए-नक़्श-ए-पा, कि यूं

गर तिरे दिल में हो ख़याल, वस्ल में शौक़ का ज़वाल
मौज मुहीत-ए-आब में, मारे है दस्त-ओ-पा, कि यूं

जो यह कहे, कि रेख़्त: क्योंकि हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्त:-ए-ग़ालिब एक बार पढ़ के उसे सुना, कि यूं

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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