Thursday, July 18, 2013

149-`इश्क़ मुझ को नहीं

`इश्क़ मुझ को नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत, तिरी शुहरत ही सही

क़त`अ कीजे न ता`अल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है, तो `अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रुस्वाई
अय, वह मजलिस नहीं, ख़ल्वत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मुहब्बत ही सही

अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही

`उम्र हरचन्द कि है बर्क़ ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क-ए-वफ़ा करते हैं
न सही `इश्क़, मुसीबत ही सही

कुछ तो दे, अय फ़लक-ए-ना-इंसाफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रुख़सत ही सही

हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तिरी `आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए, असद
गर नहीं वस्ल, तो हसरत ही सही

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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