Thursday, July 18, 2013

152-उस बज़्म में मुझे नहीं

उस बज़्म में, मुझे नहीं बनती हया किये
बैठा रहा, अगरचे: इशारे हुआ किये

दिल ही तो है, सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
मैं, और जाऊँ दर से तिरे, बिन सदा किये

रखता फिरूं हूँ, ख़िर्क़:-ओ-सज्जाद: रहन-ए-मै
मुद्दत हुई है, दा`वत-ए-आब-ओ-हवा किये

बे-सर्फ़: ही गुज़रती है, हो गरचे:, `उम्र-ए-ख़िज़्र
हज़रत भी कल कहेंगे, कि हम क्या किया किये

मक़दूर हो तो ख़ाक से पूछूं कि, अय लईम
तू ने वह गंजहा-ए-गिराँ-माय: क्या किये

किस रोज़ तुहमतें न तराशा किये `अदू
किस दिन हमारे सर प न आरे चला किये

सोहबत में ग़ैर की, न पड़ी हो कहीं यह ख़ू
देने लगा है बोस: बग़ैर इल्तिजा किये

ज़िद की है और बात, मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उसने सैंकड़ों वा`दे वफ़ा किये

ग़ालिब, तुम्हीं कहो, कि मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किये और वह सुना किये

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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