Thursday, July 18, 2013

159-दिल से तिरी निगाह

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

शक़ हो गया है सीन:, ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तकलीफ़-ए-पर्द:-दारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वह बाद:-ए-शबान: की सरमस्तियाँ कहाँ
उठये बस अब, कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी, कू-ए-यार में
बारे अब अय हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल-फ़रेबी-ए-अँदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी, क्या गुल-कतर गई

हर बू अल-हवस ने हुस्न-परस्ती शि`आर की
अब आबरू-ए-शेव:-ए-अहल-ए-नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी, काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई

फ़रदा-ओ-दी का तफ़रिक़: यक बार मिट गया
कल तुम गये, कि हम प क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने, असदुल्लाह ख़ाँ, तुम्हें
वह वलवले कहाँ, वह जवानी किधर गई

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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