Thursday, July 18, 2013

161-कोई दिन गर

कोई दिन, गर ज़िन्दगानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है

आतिश-ए-दोज़ख़ में, यह गर्मी, कहाँ
सोज़-ए-ग़महा-ए-निहानी और है

बारहा देखी हैं उन की रंजिशे
पर कुछ अब के सरगिरानी और है

दे के ख़त, मुंह देखता है नाम:बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है

क़ाता`-ए-अ`मार हैं अक्सर नुजूम
वह बला-ए-आसमानी और है

हो चुकीं, ग़ालिब बलाएं सब तमाम
एक मर्ग-ए-नागहानी और है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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