Thursday, July 18, 2013

165-फिर कुछ इक दिल को

फिर कुछ इक दिल को बेक़रारी है
सीन: जूया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है

फिर जिगर खोदने लगा, नाख़ुन
आमद-ए-फ़स्ल-ए-लाल:-कारी है

क़िबल:-ए-मक़सद-ए-निगाह-ए-नियाज़
फिर वही पर्द:-ए-`अमारी है

चश्म दल्लाल-ए- जिंस-ए-रुस्वाई
दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्वारी है

वही सदरंग नाल:-फ़र्साई
वही सदगून: अश्क बारी है

दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से, फिर
महशरिस्तान-ए-बेक़रारी है

जल्व: फिर `अर्ज़-ए-नाज़ करता है
रोज़-ए-बाज़ार-ए-जाँ-सिपारी है

फिर उसी बेवफ़ा प मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है

फिर खुला है दर-ए-`अदालत-ए-नाज़
गर्म-बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है

हो रहा है जहान में अँधेर
ज़ुल्फ़ की फिर सरिश्त:दारी है

फिर दिया पार:-ए-जिगर ने सवाल
एक फ़रियाद-ओ-आह-ओ-ज़ारी है

फिर हुए-हैं गवाह-ए-`इश्क़ तलब
अश्क बारी का हुक्म जारी है

दिल-ओ-मिश़गाँ का जो मुक़द्दम: था
आज फिर उस की रूबकारी है

बेख़ुदी बे-सबब नहीं, ग़ालिब
कुछ तो है, जिस की पर्द:दारी है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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