Thursday, July 18, 2013

168-बे-ए`तिदालियों से

बे-ए`तिदालियों से, सुबुक सब में हम हुए
जितने ज़ियाद: हो गए, उतने ही कम हुए

पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त, क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे, कि गिरफ़्तार हम हुए

हस्ती हमारी, अपनी फ़ना पर दलील है
याँ तक मिटे, कि आप हम अपनी क़सम हुए

सख़ती-कशान-ए-`इश्क़ की, पूछे है क्या ख़बर
वह लोग रफ़्त: रफ़्त: सरापा अलम हुए

तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि, दह्‌र में
तेरे सिवा भी, हम प बहुत से सितम हुए

लिखते रहे, जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हरचन्द उस में हाथ हमारे क़लम हुए

अल्लाह रे तेरी तुन्दी-ए-ख़ू, जिस के बीम से
अज्ज़ा-ए-नाल: दिल में मिरे रिज़्क़-ए-हम हुए

अहल-ए-हवस की फ़तह है, तर्क-ए-नबर्द-ए-`इश्क़
जो पाँव उठ गये, वही उन के `अलम हुए

नाले `अदम में चन्द हमारे सुपुर्द थे
जो वाँ न खिंच सके, सो वह याँ आ के दम हुए

छोड़ी, असद न हम ने गदाई में दिल्लगी
साइल हुए-तो `आशिक़-ए-अहल-ए-करम हुए

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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