Thursday, July 18, 2013

170-ज़ुल्मत-कदे में मेरे

ज़ुल्मत-कदे में मेरे, शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम`अ है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है

ने मुश.द:-ए-विसाल, न नज़्ज़ार:-ए-जमाल
मुद्दत हुई, कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है

मै ने किया है, हुस्न-ए-ख़ुदआरा को, बेहिजाब
अय शौक़, हाँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है

गौहर को `अक़्द-ए-गर्दन-ए-ख़ूबाँ में देखना
क्या औज पर सितार:-ए-गौहर-फ़रोश है

दीदार बाद:, हौसल: साक़ी निगाह मस्त
बज़्म-ए-ख़याल, मैकद:-ए-बेख़रोश है

अय ताज़:-वारिदान-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल
ज़िन्हार, अगर तुम्हें हवस-ए-नाय-ओ-नोश है

देखो मुझे, जो दीद:-ए-`इबरत-निगाह हो
मेरी सुनो, जो गोश-ए-नसीहत नियोश है

साक़ी, ब जल्व: दुश्मन-ए-ईमान-ओ-आगही
मुतरिब, ब नग़म:, रहज़न-ए-तमकीन-ओ-होश है

या शब को देखते थे, कि हर गोश:-ए-बिसात
दामान-ए-बाग़बान-ओ-कफ़-ए-गुलफ़रोश है

लुत्फ़-ए-ख़िराम-ए-साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए-सदा-ए-चँग
यह जन्नत-ए-निगाह, वह फ़िरदौस-ए-गोश है

या सुबह-दम जो देखिये आकर, तो बज़्म में
ने वह सुरूर-ओ-सोज़, न जोश-ओ-ख़रोश है

दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम`अ रह गई है, सो वह भी ख़मोश है

आते हैं ग़ैब से, यह मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब, सरीर-ए-ख़ाम: नवा-ए-सरोश है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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