Thursday, July 18, 2013

182-फिर इस अँदाज़ से

फिर इस अँदाज़ से बहार आई
कि हुए मेहर-ओ-मह तमाशाई

देखो, अय साकिनान-ए-ख़ित्त:-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं `आलम आराई

कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर
रूकश-ए-सतह-ए-चर्ख़-ए-मीनाई

सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई

सब्ज़:-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बीनाई

है हवा में शराब की तासीर
बाद: नोशी है बाद पैमाई

क्यों न दुनिया को हो ख़ुशी, ग़ालिब
शाह-ए-दींदार ने शिफ़ा पाई

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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