Thursday, July 18, 2013

184-कब वह सुनता है

कब वह सुनता है कहानी मेरी
और फिर वह भी ज़बानी मेरी

ख़लिश-ए-ग़मज़:-ए-ख़ूँ रेज़ न पूछ
देख ख़ूँनाब: फ़िशानी मेरी

क्या बयाँ कर के मिरा, रोएंगे यार
मगर आशुफ़्त:-बयानी मेरी

हूँ ज़ख़ुद रफ़्त:-ए-बैदा-ए-ख़याल
भूल जाना है, निशानी मेरी

मुतक़ाबिल है, मुक़ाबिल मेरा
रुक गया, देख रवानी मेरी

क़द्र-ए-संग-ए-सर-ए-रह रखता हूँ
सख़्त अरज़ाँ है, गिरानी मेरी

गर्द बाद-ए-रह-ए-बेताबी हूँ
सरसर-ए-शौक़ है, बानी मेरी

दहन उसका, जो न मा`लूम हुआ
खुल गई हेच मदानी मेरी

कर दिया ज़ो`फ़ ने `आजिज़, ग़ालिब
नंग-ए-पीरी, है जवानी मेरी

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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