Thursday, July 18, 2013

230-आईन: क्यों न दूँ

आईन: क्यों न दूँ, कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ, कि तुझ सा कहें जिसे

हसरत ने ला रखा, तिरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुलदस्त:-ए-निगाह, सुवैदा कहें जिसे

फूंका है किसने गोश-ए-मुहब्बत में, अय ख़ुदा
अफ़सून-ए-इंतज़ार तमन्ना कहें जिसे

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से, डालिये
वह एक मुश्त-ए-ख़ाक, कि सहरा कहें जिसे

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-`इनां-गुसेख़्त:, दरिया कहें जिसे

दरकार है, शिगुफ़्तन-ए-गुलहा-ए-`ऐश को
सुबह-ए-बहार, पंब:-ए-मीना कहें जिसे

ग़ालिब, बुरा न मान, जो वा`इज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है, कि सब अच्छा कहें जिसे

यारब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
यह महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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