Wednesday, July 17, 2013

232-मंज़ूर थी यह शक्ल

मंज़ूर थी यह शक्ल, तजल्ली को नूर की
क़िस्मत खुली तिरे क़द-ओ-रुख़ से ज़ुहूर की

इक ख़ूँ चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाव हैं
पड़ती है आँख, तेरे शहीदों प, हूर की

वा`इज़ न तुम पियो, न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तहूर की

लड़ता है मुझसे हश्र में क़ातिल, कि क्यों उठा
गोया, अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर की

आमद बहार की है, जो बुलबुल है नग़म: संज
उड़ती-सी इक ख़बर है, ज़बानी तयूर की

गो वाँ नहीं, प वाँ के निकाले हुए तो हैं
का`बे से उन बुतों को भी निस्बत है दूर की

क्या फ़र्ज़ है, कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की

गर्मी सही कलाम में, लेकिन न इस क़दर
की जिस से बात, उसने शिकायत ज़रूर की

ग़ालिब, गर उस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब नज़र करूँगा हुज़ूर की

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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