Wednesday, July 17, 2013

233-ग़म खाने में बोदा

ग़म खाने में बोदा, दिल-ए-नाकाम, बहुत है
यह रंज, कि कम है मै-ए-गुलफ़ाम, बहुत है

कहते हुए साक़ी से हया आती है, वर्न:
है यूं, कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है

ने तीर कमाँ में है, न सय्याद कमीं में
गोशे में क़फ़स के, मुझे आराम बहुत है

क्या ज़ुहद को मानूँ, कि न हो गरचे: रियाई
पादाश-ए-`अमल की तम`-ए-ख़ाम बहुत है

हैं अहल-ए-ख़िरद किस रविश-ए-ख़ास प नाज़ाँ
पा-बस्तगी-ए-रस्म-ओ-रह-ए-`आम बहुत है

ज़मज़म ही प छोड़ो मुझे क्या तौफ़-ए-हरम से
आलूद: ब मै जाम:-ए- एहराम, बहुत है

है क़हर गर अब भी न बने बात, कि उनको
इनकार नहीं और मुझे इबराम बहुत है

ख़ूँ हो के जिगर आँख से टपका नहीं, अय मर्ग
रहने दे मुझे याँ, कि अभी काम बहुत है

होगा कोई ऐसा भी, कि ग़ालिब को न जाने
शा`इर तो वह अच्छा है, प बदनाम बहुत है

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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