Wednesday, July 17, 2013

234-मुद्दत हुई है यार को

ग़ालिब ने यह ग़ज़ल 1817-1821 के बीच किसी समय लिखी है और इस समय उनकी उम्र 20 से 24 वर्ष के बीच की थी  

यह ग़ज़ल आदि से अंत तक प्रेम और श्रृंगार पर लिखी गई है पहले शेर को छोड़कर बाकी सब शेरों में पहले मिसरे में "फिर" शब्द का इस्तेमाल किया है शायर पुराने दिनों को याद करते हुए आगे भी वही सब करने की इच्छा रखता है

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश--क़दह से, बज़्म चराग़ां किये हुए

करता हूँ जम` फिर जिगर--लख़्त लख़्त को
`अर्स: हुआ है दा`वत--मिश़गाँ किये हुए

फिर वज़`-- एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक--गरीबाँ किये हुए

फिर गर्म--नाल: हा--शरर-बार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर--चराग़ां किये हुए

फिर पुरसिश--जराहत--दिल को चला है `इश्क़
सामान--सद-हज़ार नमकदाँ किये हुए

फिर भर रहा हूँ ख़ाम:--मिश़गाँ, ख़ून--दिल
साज़--चमन तराज़ी--दामाँ किये हुए

बाहम-दिगर हुए हैं दिल--दीद: फिर रक़ीब
नज़्ज़ार:--ख़याल का सामाँ किये हुए

दिल फिर तवाफ़--कू--मलामत को जाए है
पिन्दार का सनमकद: वीराँ किये हुए

फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
`अर्ज़--मता`--`अक़्ल--दिल--जाँ किये हुए

दौड़े है फिर हर एक गुल--लाल: पर ख़याल
सद गुलसिताँ निगाह का सामाँ किये हुए

फिर चाहता हूँ नाम:--दिलदार खोलना
जाँ नज़र--दिल-फ़रेबी--`उन्वाँ किये हुए

माँगे है फिर, किसी को लब--बाम पर, हवस
ज़ुल्फ़--सियाह रुख़ परीशाँ किये हुए

चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू
सुरमे से तेज़ दश्न:--मिश़गाँ किये हुए

इक नौबहार--नाज़ को ताके है फिर, निगाह
चेहर: फ़रोग़--मै से गुलिस्ताँ किये हुए

फिर, जी में है कि दर किसी के पड़े रहें
सर ज़ेर-बार--मिन्नत--दरबाँ किये हुए

जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर--जानाँ किये हुए

ग़ालिब, हमें छेड़ कि फिर जोश--अश्क से
बैठे हैं हम तहय्य--तूफ़ाँ किये हुए

-मिर्ज़ा ग़ालिब


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