ग़ालिब ने यह ग़ज़ल 1817-1821 के बीच किसी समय लिखी है और इस समय उनकी उम्र 20 से 24 वर्ष के बीच की थी ।
यह ग़ज़ल आदि से अंत तक प्रेम और श्रृंगार पर लिखी गई है । पहले शेर को छोड़कर बाकी सब शेरों में पहले मिसरे में "फिर" शब्द का इस्तेमाल किया है । शायर पुराने दिनों को याद करते हुए आगे भी वही सब करने की इच्छा रखता है ।
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह से, बज़्म चराग़ां किये हुए
करता हूँ जम`अ फिर जिगर-ए-लख़्त लख़्त को
`अर्स:
हुआ है दा`वत-ए-मिश़गाँ किये हुए
फिर वज़`-ए- एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक-ए-गरीबाँ किये हुए
फिर गर्म-ए-नाल: हा-ए-शरर-बार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ां किये हुए
फिर पुरसिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है `इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार नमकदाँ किये हुए
फिर भर रहा हूँ ख़ाम:-ए-मिश़गाँ, ब ख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन तराज़ी-ए-दामाँ किये हुए
बाहम-दिगर हुए हैं दिल-ओ-दीद: फिर रक़ीब
नज़्ज़ार:-ओ-ख़याल का सामाँ किये हुए
दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाए है
पिन्दार का सनमकद: वीराँ किये हुए
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
`अर्ज़-ए-मता`-ए-`अक़्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किये हुए
दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लाल: पर ख़याल
सद गुलसिताँ निगाह का सामाँ किये हुए
फिर चाहता हूँ नाम:-ए-दिलदार खोलना
जाँ नज़र-ए-दिल-फ़रेबी-ए-`उन्वाँ किये हुए
माँगे है फिर, किसी को लब-ए-बाम पर, हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ प परीशाँ किये हुए
चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू
सुरमे से तेज़ दश्न:-ए-मिश़गाँ किये हुए
इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर, निगाह
चेहर: फ़रोग़-ए-मै से गुलिस्ताँ किये हुए
फिर, जी में है कि दर प किसी के पड़े रहें
सर ज़ेर-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ किये हुए
जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
ग़ालिब, हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्य-ए-तूफ़ाँ किये हुए
-मिर्ज़ा
ग़ालिब
------------------------------------------------------------------------------------
Iqbal Bano/ इक़बाल बानो
Noorjahan/ नूरजहाँ
Live
Mohammad Rafi/ मोहम्मद रफ़ी
Mehdi Hassan/ मेहदी हसन
Ustad Anis Ahmed Khan/ उस्ताद अनीस अहमद ख़ाँ
No comments:
Post a Comment