Thursday, July 18, 2013

137-ग़म-ए-दुनिया से

ग़म-ए-दुनिया से, गर पाई भी फ़ुर्सत, सर उठाने की
फ़लक का देखना, तक़रीब तेरे याद आने की

खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का यारब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने, काग़ज़ के जलाने की

लिपटना परनियाँ में शो’ल:-ए-आतिश का आसाँ है
वले मुश्किल है हिकमत, दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की

उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को, देखना शोख़ी बहाने की

हमारी सादगी थी, इल्तिफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तिरा आना न था, ज़ालिम, मगर तम्हीद जाने की

लकद-कोब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मिरी ताक़त, कि ज़ामिन थी बुतों के नाज़ उठाने की

कहूँ क्या ख़ूबी-ए-औज़ा`-ए-अबना-ए-ज़माँ, ग़ालिब
बदी की उसने, जिस से हम ने की थी बारहा नेकी

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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