Thursday, July 18, 2013

189-है वस्ल हिज्र

है वस्ल हिज्र, `आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
मा`शूक़-ए-शोख़-ओ-`आशिक़-ए-दीवान: चाहिये

उस लब से मिल ही जाएगा बोस: कभी तो, हाँ
शौक़-ए-फ़ुज़ूल-ओ-जुरअत-ए-रिन्दान: चाहिये

`आशिक़ नक़ाब-ए-जल्व:-ए-जानान: चाहिये
फ़ानूस-ए-शम`अ को पर-ए-परवान: चाहिये

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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