Thursday, July 18, 2013

192-नुक्त:-चीं है ग़म-ए-दिल

नुक्त:-चीं है, ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूँ उसको, मगर अय जज़्ब:-ए-दिल
उस प बन जाए कुछ ऐसी, कि बिन आए न बने

खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाए
काश, यूं भी हो, कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिरता है, लिये यूं तिरे ख़त को, कि अगर
कोई पूछे, कि यह क्या है, तो छुपाए न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो, वह भले हैं, तो क्या
हाथ आवें, तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन, कि यह जल्व:गरी किसकी है
पर्द: छोड़ा है वह उसने, कि उठाए-न बने

मौत की राह न देख़ूँ, कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूँ, कि न आओ, तो बुलाए न बने

बोझ वह सर से गिरा है, कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है, कि बनाए न बने

`इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है यह वह आतिश, ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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