कहूँ जो हाल, तो कहते हो, मुद्द`आ कहिये
तुम्हीं कहो, कि जो तुम यूं कहो, तो क्या कहिये
न कहयो ता`न से फिर तुम, कि, हम सितमगर हैं
मुझे तो ख़ू है, कि जो कुछ कहो, बजा, कहिये
वह नेश्तर सही, पर दिल में जब उतर जावे
निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यों न आश्ना कहिये
नहीं ज़री`अ:-ए-राहत, जराहत-ए-पैकाँ
वह ज़ख़्म-ए-तेग़ है, जिस को कि दिलकुशा कहिये
जो मुद्द`ई बने, उस के न मुद्द`ई बनिये
जो नासज़ा कहे, उसको न नासज़ा कहिये
कहीं हक़ीक़त-ए-जाँकाही-ए-मरज़ लिखिये
कहीं मुसीबत-ए-नासाज़ी-ए-दवा कहिये
कभी शिकायत-ए-रंज-ए-गिराँ-निशीं कीजे
कभी हिकायत-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कहिये
रहे न जान, तो क़ातिल को ख़ूँ बहा दीजे
कटे ज़बान, तो ख़ंजर को मरहबा कहिये
नहीं निगार को उल्फ़त, न हो, निगार तो है
रवानी-ए-रविश-ओ-मस्ती-ए-अदा कहिये
नहीं बहार को फ़ुर्सत, न हो, बहार तो है
तरावत-ए-चमन-ओ-ख़ूबी-ए-हवा कहिये
सफ़ीन: जब कि किनारे प आ लगा, ग़ालिब
ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जौर-ए-नाख़ुदा कहिये
-मिर्ज़ा ग़ालिब
तुम्हीं कहो, कि जो तुम यूं कहो, तो क्या कहिये
न कहयो ता`न से फिर तुम, कि, हम सितमगर हैं
मुझे तो ख़ू है, कि जो कुछ कहो, बजा, कहिये
वह नेश्तर सही, पर दिल में जब उतर जावे
निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यों न आश्ना कहिये
नहीं ज़री`अ:-ए-राहत, जराहत-ए-पैकाँ
वह ज़ख़्म-ए-तेग़ है, जिस को कि दिलकुशा कहिये
जो मुद्द`ई बने, उस के न मुद्द`ई बनिये
जो नासज़ा कहे, उसको न नासज़ा कहिये
कहीं हक़ीक़त-ए-जाँकाही-ए-मरज़ लिखिये
कहीं मुसीबत-ए-नासाज़ी-ए-दवा कहिये
कभी शिकायत-ए-रंज-ए-गिराँ-निशीं कीजे
कभी हिकायत-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कहिये
रहे न जान, तो क़ातिल को ख़ूँ बहा दीजे
कटे ज़बान, तो ख़ंजर को मरहबा कहिये
नहीं निगार को उल्फ़त, न हो, निगार तो है
रवानी-ए-रविश-ओ-मस्ती-ए-अदा कहिये
नहीं बहार को फ़ुर्सत, न हो, बहार तो है
तरावत-ए-चमन-ओ-ख़ूबी-ए-हवा कहिये
सफ़ीन: जब कि किनारे प आ लगा, ग़ालिब
ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जौर-ए-नाख़ुदा कहिये
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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