Thursday, July 18, 2013

218-बाग़ पाकर ख़फ़क़ानी

बाग़ पाकर ख़फ़क़ानी, यह डराता है मुझे
साय:-ए-शाख़-ए-गुल, अफ़`ई नज़र आता है मुझे

जौहर-ए-तेग़ ब सर चश्म:-ए-दीगर मा`लूम
हूँ मैं वह सब्ज़:, कि ज़हर-आब उगाता है मुझे

मुद्द`आ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है
आइन:-ख़ाने में कोई लिये जाता है मुझे

नाल: सरमाय:-ए-यक-`आलम-ओ-`आलम कफ़-ए-ख़ाक
आसमाँ बैज़:-ए-क़ुमरी नज़र आता है मुझे

ज़िन्दगी में तो वह महफ़िल से उठा देते थे
देख़ूँ, अब मर गए, पर कौन उठाता है मुझे

बाग़ तुझ बिन गुल-ए-नर्गिस से डराता है मुझे
चाहूँ गर सैर-ए-चमन आँख दिखाता है मुझे

शोर-ए-तिम्साल है किस रश्क-ए-चमन का यारब
आइन: बैज़ह-ए-बुलबुल नज़र आता है मुझे

हैरत-ए-आइन: अन्जाम-ए-जुनूँ हूँ जयूं शम`अ
किस क़दर दाग़-ए-जिगर शो’ल: उठाता है मुझे

मैं हूँ और हैरत-ए-जावेद मगर ज़ौक़-ए-ख़याल
ब फ़ुसून-ए-निगह-ए-नाज़ सताता है मुझे

हैरत-ए-फ़िक़्र-ए-सुख़न साज़-ए-सलामत है असद
दिल पस-ए-ज़ानू-ए-आईन: बिठाता है मुझे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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