Thursday, July 18, 2013

219-रौंदी हुई है

रौंदी हुई है, कौकब:-ए-शहरयार की
इतराए-क्यों न ख़ाक, सर-ए-रहगुज़ार की

जब उस के देखने के लिये आएं बादशाह
लोगों में क्यों नमूद न हो, लाल:-ज़ार की

भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम, वले
क्योंकर न खाइये, कि हवा है बहार की

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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