Thursday, July 18, 2013

220-हज़ारों ख़वाहिशें ऐसी

हज़ारों ख़वाहिशें ऐसी, कि हर ख़्वाहिश प दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वह ख़ूँ, जो चश्म-ए-तर से `उम्र भर यूं दम ब दम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं, लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए, ज़ालिम, तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुर्र-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हम से लिखवाए
हुई सुबह, और घर से कान पर रख कर क़लम निकले

हुई इस दौर में मंसूब मुझसे बाद:-आशामी
फिर आया वह ज़मान:, जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले

हुई जिन से तवक़्क़ो`अ,  ख़स्तगी की दाद पाने की
वह हम से भी ज़ियाद: ख़स्त:-ए-तेग़-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफ़िर प दम निकले

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़:, ग़ालिब. और कहाँ वा`इज़
पर इतना जानते हैं, कल वह जाता था, कि हम निकले

-मिर्ज़ा ग़ालिब

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